सीता की मुश्किल और द्रोपती के अपमान से अधिक किसने सही होगी पीडा,आज इस मुश्किल दौर मेँ समाज के दो चेहरे नजर आ रहे है - ममता यादव
- सीता से ज्यादा मुश्किलेँ और दौपदी से अधिक अपमान किसी ने नही सहा होगा ? हर युग मे स्त्री को ही क्यो अग्निपरीक्षा देना पडती है ?
अनादि काल से स्त्री को पूजनीय सबसे ऊपर बताकर भी सिर्फ शोषण किया गया। इसे फेमनिज्म से न जोड़ें क्योंकि मैं इन दिखावों में विश्वास नहीं करती। पर आज महाभारत का द्रोपदी चीर हरण का एपिसोड देखकर लगा क्या वाकई पुरूष इतना विवश भी हो सकता है? सैकड़ों महारथी पुरुष एक स्त्री के लिये ढाल नहीं बन पाए।।फिर भी पूरे समय सिर्फ पुरुषत्व का दम्भ। अम्बा से लेकर द्रौपदी तक कुरुवंश में स्त्रियों के साथ मनमाना व्यवहार और उनका अपमान ही किया सिर्फ धर्म कर्तव्य के नाम पर।
सही ही तो कहा था द्रौपदी ने कि ऐसा धर्म किस काम का जो गर्व गौरव की रक्षा न कर सके। लगा कलयुग तो महाभारत के समय ही आ गया था। अब हम तो बस उसके अपडेट वर्जन में जी रहे हैं।
2 .दो दिन से दिल दिमाग बहुत भारी है कल गैस रिसाव वाली खबर और आज ट्रेन से मजदूरों के कटने की घटना। इंसान की जान हमारे देश में माटी के मोल है। एक तो जनसंख्या ज्यादा फिर सिस्टम की रगों में खून बनकर बहता करप्शन। इंसान की क्या बिसात पैसे के आगे,? फिर महाभारत भी देख ली। सिस्टम में दुशासन दुर्योधन हंसते हुए नजर आए और जनता द्रोपदी की भूमिका में है। अब उसे खुद ही प्रतिरोध करना होगा। छोटे-छोटे विरोध बड़ा बवंडर बनकर विस्फोट करते हैं। क्या भारत उसी राह पर है? कोरोना ने सबको एक्सपोज कर दिया। सबके चेहरों पर से नकाब उतर गए। सरकारें इतनी लापरवाह और सिस्टम कितना निर्मम हो सकता है यह कोरोना ने बता दिया। इस समय भी सिस्टम में बैठे लोग भृष्टाचार से बाज नहीं आ रहे। कोई गरीबो का राशन खा रहा है कई निजी अस्पताल अपने कसाइपने की आदत नहीं छोड़ पा रहे तो कोई पीपीई से लेकर टेस्टिंग किट सेनेटाइजर तक में घालमेल कर रहा है। ऐसा लग रहा है लोग ये मौका छोड़ देंगे तो उन्हें दोबारा कमाने का मौका शायद ही मिले। कोरोना ने यह भी बताया कि ये इस देश का सामाजिक ढांचा है यहां के लोगों के संस्कार कहिये या कुछ और हर कोई अपने-अपने स्तर पर राशन से लेकर खाने तक की मदद कर रहा है वरना कोरोना से तो नहीं पता अब तक भूख भूख से लोग बहुत ज्यादा तादाद में मर रहे होते। लेकिन जो भी कोई कुछ कर रहा है उसका अपना दायरा है पर इस समय समाज के हर वर्ग के दो चेहरे सामने आ रहे हैं बहुत अच्छे इंसानियत से लबरेज और बहुत खराब पशुओं से भी गए बीते।।सरकार और सिस्टम को तो कहें ही क्या? ये जो अच्छे इंसानियत से लबरेज लोग हैं यही उम्मीद हैं बस...मैं ग़म को खुशी कैसे कह दूं... दिल बहलाने के लिये ग़ालिब ख्याल अच्छा है कि...सकारात्मक सोचिये। आप सोच सकते हैं सकारात्मक इतनी सारी ह्रदयविदारक रोंगटे खड़ी करने वाली घटनाओं के बाद? पर अब तो यहां हालत ये है कि एक-एक निवाले के साथ ये ख्याल गले में अटक जाता है कि कितने लोग भूखे सड़क पर दौड़ रहे हैं। कहीं बच्चे पैर थकने के बाद भी घिसट रहे हैं। उफ्फ! क्या-क्या नजरअंदाज करें? आखिर को इंसान हैं। रहम करो प्रभु रहम करो।
ममता यादव
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